चोटी की पकड़–77
यूसुफ तालतल्ले पहुँचे। गाड़ी रोकी। दोनों साथी आधा दाम देकर उतर पड़े और सलाम-वालेकुम करके चल दिए। तीसरा साथी प्रतीक्षा कर रहा था। तपाक से मिला। पूछा, "वह कहाँ है?"
"साथ आया है।" एक ने कहा।
"राज मिल गया।"
"फँस जाएगा?"
अब इसको कौन छोड़ता है?"
"यहाँ जड़ जमानी पड़ेगी?" एक ने पूछा।
"मानी बात है।" उस मुसलमान साथी ने कहा।
"गुंजाइश है?"
"बहुत।" पहलेवाले ने कहा।
"तुम्हारी किस्मत खुल गई।"
"मुमकिन, गहरी रकम हाथ आए।"
इक्कीस
"भाई नजीर !" यूसुफ ने पुकारा।
नजीर बैठे थे। अभी ही फुर्सत मिली थी। सोच रहे थे। कहनेवाले आदमी की बात पक्की मालूम हो रही थी। घबराए भी थे। गरीब थे। यूसुफ की दोस्ती से फायदा न हुआ था। कटने की ठान ली। आवाज पहचान कर उठे। दिल से नफरत थी, मगर मुस्कराहट से होंठ रँग लिए। थानेदार की निगाह से निगाह भी नीची रखी।
"अस्सलामवालेकुम्।"
"वालेकुम् अस्सलाम।"
"भाई, तुम्हारा नाम एक जगह लिखाया है।"
"किस जगह?"
"तुम पुलिस से राज लेने लगे।"
"क्या हमसे पूछा गया?"
"यह बातचीत तो पहले हो चुकी है।"
'इसका यह मतलब नहीं कि हम खुदा के लिए मुसलमान न रह जाएँ।
"इस दफे के लिए मान जाओ।"
"आप पूरा-पूरा हाल बयान कीजिए, वरना..."
"वरना?"
"हाँ।"
"वरना आप सरकार से बदला चुका लेंगे।"
"नहीं, चुकवा लूँगा।"
"तुम तो बहुत बिगड़े।"
"बात भी कोई बनायी?"
"बात तो बनायी?"
"बातें बनाते हैं।"
"अच्छा तो जो जी में आए कर लो," कहकर थानेदार साहब ने नकली ठहाका लगाया।
"मैं मज़ाक नहीं कर रहा।"